आई बहार शोरिश-तिफ़लाँ को क्या हुआ
अहल-ए-जुनूँ किधर गए याराँ को क्या हुआ
ग़ुंचे लहू में तर नज़र आते हैं तह-ब-तह
इस रश्क-ए-गुल को देख गुलिस्ताँ को क्या हुआ
याक़ूत-ए-लब तिरा हुआ क्यूँ ख़त से जुर्म-वार
ज़ालिम ये रश्क-ए-ल'अल-ए-बदख़्शाँ को क्या हुआ
उस जामा-ज़ेब ग़ुंचा-दहन को चमन में देख
हैराँ हूँ मैं कि गुल के गरेबाँ को क्या हुआ
आने से तेरे ख़त के ये क्यूँ दिल-ए-गिरफ़्ता है
बतला कि तेरी ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ को क्या हुआ
क्यूँ गर्द बाद से ये उड़ाता है सर पे ख़ाक
हूँ मैं तो जा-ए-क़ैस बयाबाँ को क्या हुआ
रोते ही तेरे ग़म में गुज़रती है उस की उम्र
पूछा कभी न तू ने कि 'ताबाँ' को क्या हुआ
ग़ज़ल
आई बहार शोरिश-तिफ़लाँ को क्या हुआ
ताबाँ अब्दुल हई