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आहटों से दिमाग़ जलता है | शाही शायरी
aahaTon se dimagh jalta hai

ग़ज़ल

आहटों से दिमाग़ जलता है

समद अंसारी

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आहटों से दिमाग़ जलता है
आज सिक्का हवा का चलता है

थरथराती है लौ मशिय्यत की
एक महशर फ़ज़ा में पलता है

सर उठाते हैं नक़्श पाँव तले
साया जब आदमी का ढलता है

रंग चुनता है ज़ेहन बिल्लोर
जिस्म जब धूप से पिघलता है

अपने मेहवर पे शाम तक सूरज
कितने ही ज़ाविए बदलता है

कर के पत्थर से पाश पाश हमें
शहर का शहर हाथ मलता है

शो'ला-ज़न है ग़म-ए-हयात 'समद'
पर्बतों से धुआँ निकलता है