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आह ये दौर कि जिस में लब-ओ-रुख़्सार बिके | शाही शायरी
aah ye daur ki jis mein lab-o-ruKHsar bike

ग़ज़ल

आह ये दौर कि जिस में लब-ओ-रुख़्सार बिके

वाहिद प्रेमी

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आह ये दौर कि जिस में लब-ओ-रुख़्सार बिके
दस्त-ए-फ़ितरत के बनाए हुए शहकार बिके

दिल के जज़्बात बिके ज़ेहन के अफ़्कार बिके
सच तो ये है कि हर इक अहद में फ़नकार बिके

अस्र-ए-हाज़िर में कोई चीज़ भी अनमोल नहीं
इश्क़ की आन बिके हुस्न का पिंदार बिके

इक दहकती हुई दोज़ख़ को बुझाने के लिए
कितने ही फूल से पैकर सर-ए-बाज़ार बिके

नफ़्स की देवी का पुर-कैफ़ इशारा पा कर
साहिब-ए-होश बिके साहब-ए-किरदार बिके

ख़ुद-ग़रज़ चंद निगहबानों के हाथों अक्सर
फूल तो फूल हैं गुलज़ार के गुलज़ार बिके

बज़्म-ए-साक़ी भी वो बाज़ार-ए-तरब है 'वाहिद'
एक साग़र पे जहाँ फ़ितरत-ए-ख़ुद्दार बिके