आह वो शो'ला है जो जी को बुझा के उट्ठे
दर्द वो फ़ित्ना है जो दिल को बिठा के उट्ठे
आप की याद में हम ऐ सनम-ए-ग़फ़लत-केश
ऐसे बैठे कि क़यामत ही उठा के उट्ठे
एक दुज़्दीदा-नज़र से मिरा दिल छीन के वाह
तुम किधर को मिरी जाँ आँख बचा के उट्ठे
अर्सा-ए-हश्र तक इक लग गया ताँता उन का
मुर्दे क़ब्रों से जो तेरे शोहदा के उट्ठे
रमज़ाँ क्यूँकि बरस-भर को समझ बैठें हम
आए दिन के भी किसी से ये कड़ाके उट्ठे
दिल-नशीं रहमत-ए-हक़ जब से हुई है 'कैफ़ी'
दग़दग़े दिल से मिरे रोज़-ए-जज़ा के उट्ठे
ग़ज़ल
आह वो शो'ला है जो जी को बुझा के उट्ठे
दत्तात्रिया कैफ़ी