EN اردو
आह शर्मिंदा-ए-असर न हुई | शाही शायरी
aah sharminda-e-asar na hui

ग़ज़ल

आह शर्मिंदा-ए-असर न हुई

शंकर लाल शंकर

;

आह शर्मिंदा-ए-असर न हुई
कोई तदबीर कारगर न हुई

मुल्तफ़ित आप की नज़र न हुई
शाख़-ए-उम्मीद बारवर न हुई

हम ने दिन जिस जगह गुज़ार दिया
रात अपनी वहाँ बसर न हुई

ऐब औरों के ढूँडते हैं हम
अपने अफ़आ'ल पर नज़र न हुई

क़िस्सा-ए-ग़म अगर न था कोताह
ज़िंदगानी भी मुख़्तसर न हुई

रह गई दिल में दाग़-ए-दिल बन कर
वो तमन्ना जो बारवर न हुई

दाद दो मेरे ज़ब्त-ए-ग़म की मुझे
दिल भी रोया तो चश्म तर न हुई

मेरे तख़्ईल की बुलंदी भी
कभी मोहताज-ए-बाल-ओ-पर न हुई

ख़ूबियाँ देखिए मुक़द्दर की
हो गई शाम तो सहर न हुई

उन से मिलने की आरज़ू पूरी
बात मुमकिन सही मगर न हुई

दिल पे गुज़रे वो हादसे 'शंकर'
इक घड़ी चैन से बसर न हुई