आह मिलते ही फिर जुदाई की 
वाह क्या ख़ूब आश्नाई की 
न गई तेरी सर-कशी ज़ालिम 
हम ने हर-चंद जब्बा-साई की 
दिल नहीं अपने इख़्तियार में आज 
क्या मगर तू ने आश्नाई की 
दर पे ऐ यार तेरे आ पहुँचे 
तपिश-ए-दिल ने रहनुमाई की 
क़ाबिल-ए-सज्दा तू ही है ऐ बुत 
सैर की हम ने सब ख़ुदाई की 
जो मुक़य्यद हैं तेरी उल्फ़त के 
आरज़ू कब उन्हें रिहाई की 
जी में 'बेदार' खप गई मेरे 
ख़ंदक़ उस पंजा-ए-हिनाई की
        ग़ज़ल
आह मिलते ही फिर जुदाई की
मीर मोहम्मदी बेदार

