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आह मिलते ही फिर जुदाई की | शाही शायरी
aah milte hi phir judai ki

ग़ज़ल

आह मिलते ही फिर जुदाई की

मीर मोहम्मदी बेदार

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आह मिलते ही फिर जुदाई की
वाह क्या ख़ूब आश्नाई की

न गई तेरी सर-कशी ज़ालिम
हम ने हर-चंद जब्बा-साई की

दिल नहीं अपने इख़्तियार में आज
क्या मगर तू ने आश्नाई की

दर पे ऐ यार तेरे आ पहुँचे
तपिश-ए-दिल ने रहनुमाई की

क़ाबिल-ए-सज्दा तू ही है ऐ बुत
सैर की हम ने सब ख़ुदाई की

जो मुक़य्यद हैं तेरी उल्फ़त के
आरज़ू कब उन्हें रिहाई की

जी में 'बेदार' खप गई मेरे
ख़ंदक़ उस पंजा-ए-हिनाई की