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आह को नग़्मा कि नग़्मे को फ़ुग़ाँ करना पड़े | शाही शायरी
aah ko naghma ki naghme ko fughan karna paDe

ग़ज़ल

आह को नग़्मा कि नग़्मे को फ़ुग़ाँ करना पड़े

नाज़िश प्रतापगढ़ी

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आह को नग़्मा कि नग़्मे को फ़ुग़ाँ करना पड़े
देखिए क्या कुछ बराए दोस्ताँ करना पड़े

अहल-ए-महफ़िल ग़ौर से सुनते रहें रूदाद-ए-दिल
क्या ख़बर किस लफ़्ज़ को कब दास्ताँ करना पड़े

रख जबीन-ए-शौक़ में महफ़ूज़ गर्मी-ए-नियाज़
कौन जाने तुझ को इक सज्दा कहाँ करना पड़े

पूछिए उस से ज़बान-ओ-लफ़्ज़ की मजबूरियाँ
जिस को हाल-ए-दिल निगाहों से बयाँ करना पड़े

कुछ वही समझेगा 'नाज़िश' आज के माहौल को
जिस को ज़िंदाँ पर यक़ीन-ए-गुल्सिताँ करना पड़े