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आह भरता हूँ तो भरने भी नहीं देता है | शाही शायरी
aah bharta hun to bharne bhi nahin deta hai

ग़ज़ल

आह भरता हूँ तो भरने भी नहीं देता है

अहमद कमाल हशमी

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आह भरता हूँ तो भरने भी नहीं देता है
और वो ख़ामोशी से मरने भी नहीं देता है

नाख़ुदा कश्ती को साहिल से लगाता भी नहीं
बीच दरिया में उतरने भी नहीं देता है

दूसरा ज़ख़्म लगा देता है दिल पर मेरे
पहले को ठीक से भरने भी नहीं देता है

मेरे आँसुओं से वो संग पिघलता भी नहीं
सर पटक कर मुझे मरने भी नहीं देता है

बाज़ आता भी नहीं ज़र्ब लगाने से वो
टूट कर मुझ को बिखरने भी नहीं देता है

मेरे सपनों को वो सच भी नहीं होने देता
मगर उम्मीद को मरने भी नहीं देता है

आइने को मिरे चेहरे से शिकायत है बहुत
आइना मुझ को सँवरने भी नहीं देता है

उस की महफ़िल में पहुँचने की तमन्ना मत कर
वो तो कूचे से गुज़रने भी नहीं देता है