आग़ोश में जो जल्वागर इक नाज़नीं हुआ
अंगुश्तरी बना मिरा तन वो नगीं हुआ
रौनक़-फ़ज़ा लहद पे जो वो मह-जबीं हुआ
गुम्बद हमारी क़ब्र का चर्ख़-ए-बरीं हुआ
कंदा जहाँ में कोई न ऐसा नगीं हुआ
जैसा कि तेरा नाम मिरे दिल-नशीं हुआ
रौशन हुआ ये मुझ पे कि फ़ानूस में है शम्अ
हाथ उस का जल्वागर जो तह-ए-आस्तीं हुआ
रखता है ख़ाक पर वो क़दम जब कि नाज़ से
कहता है आसमान न क्यूँ मैं ज़मीं हुआ
रौशन शबाब में जो हुई शम-ए-रू-ए-यार
दूद-ए-चराग़ हुस्न-ए-ख़त-ए-अम्बरीं हुआ
या रब गिरा अदू पे 'अमानत' के तू वो बर्क़
दो टुकड़े जिस से शहपर-ए-रूहुल-अमीं हुआ
ग़ज़ल
आग़ोश में जो जल्वागर इक नाज़नीं हुआ
अमानत लखनवी