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आग़ोश में जो जल्वागर इक नाज़नीं हुआ | शाही शायरी
aaghosh mein jo jalwagar ek naznin hua

ग़ज़ल

आग़ोश में जो जल्वागर इक नाज़नीं हुआ

अमानत लखनवी

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आग़ोश में जो जल्वागर इक नाज़नीं हुआ
अंगुश्तरी बना मिरा तन वो नगीं हुआ

रौनक़-फ़ज़ा लहद पे जो वो मह-जबीं हुआ
गुम्बद हमारी क़ब्र का चर्ख़-ए-बरीं हुआ

कंदा जहाँ में कोई न ऐसा नगीं हुआ
जैसा कि तेरा नाम मिरे दिल-नशीं हुआ

रौशन हुआ ये मुझ पे कि फ़ानूस में है शम्अ
हाथ उस का जल्वागर जो तह-ए-आस्तीं हुआ

रखता है ख़ाक पर वो क़दम जब कि नाज़ से
कहता है आसमान न क्यूँ मैं ज़मीं हुआ

रौशन शबाब में जो हुई शम-ए-रू-ए-यार
दूद-ए-चराग़ हुस्न-ए-ख़त-ए-अम्बरीं हुआ

या रब गिरा अदू पे 'अमानत' के तू वो बर्क़
दो टुकड़े जिस से शहपर-ए-रूहुल-अमीं हुआ