आग़ोश-ए-तसव्वुर में जब मैं ने उसे मस़्का
लब-हा-ए-मुबारक से इक शोर था ''बस बस'' का
सौ बार हरीर उस का मस़्का निगह-ए-गुल से
शबनम से कब ऐ बुलबुल पैराहन-ए-गुल मस़्का
उस तन को नहीं ताक़त शबनम के तलब्बुस से
ऐ दस्त-ए-हवस इस पर तू क़स्द न कर मस का
मलती है परी आँखें और हूर जबीं सा है
है नक़्श-ए-जहाँ यारो उस पा-ए-मुक़द्दस का
तर रखियो सदा या-रब तू इस मिज़ा-ए-तर को
हम इत्र लगाते हैं गर्मी में इसी ख़स का
इस गिर्या-ए-ख़ूनीं की दौलत से 'नज़ीर' अपने
अब कल्बा-ए-अहज़ाँ में कुल फ़र्श है अतलस का
ग़ज़ल
आग़ोश-ए-तसव्वुर में जब मैं ने उसे मस़्का
नज़ीर अकबराबादी