आग़ोश-ए-रंग-ओ-बू के फ़साने में कुछ नहीं
हसरत निकल गई तो ज़माने में कुछ नहीं
मायूसियों में हुस्न भी रौशन नहीं रहा
दिल बुझ गया तो शम्अ जलाने में कुछ नहीं
साक़ी के कैफ़-ए-बादा-ए-पारीना की क़सम
साइंस के जदीद ख़ज़ाने में कुछ नहीं
इक हुस्न-ए-नीम-ख़्वाब का आलम ही और है
सोई हुई अदा को जगाने में कुछ नहीं
फ़ितरत नई ज़माना नया ज़िंदगी नई
कोहना ख़ुदा को पूजते जाने में कुछ नहीं
तेरा ही एक अक्स था हर सू नज़र-फ़रेब
देखा तो मेरे आईना-ख़ाने में कुछ नहीं
कुछ ज़िक्र-ए-जाम-ओ-शाहिद-ओ-मय कीजिए 'नुशूर'
होश ओ ख़िरद के सर्द फ़साने में कुछ नहीं
ग़ज़ल
आग़ोश-ए-रंग-ओ-बू के फ़साने में कुछ नहीं
नुशूर वाहिदी