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आग़ोश-ए-एहतियात में रख लूँ जिगर कहीं | शाही शायरी
aaghosh-e-ehtiyat mein rakh lun jigar kahin

ग़ज़ल

आग़ोश-ए-एहतियात में रख लूँ जिगर कहीं

राज्य बहादुर सकसेना औज

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आग़ोश-ए-एहतियात में रख लूँ जिगर कहीं
डरता हूँ ले उड़े न किसी की नज़र कहीं

ग़ुर्बत में अजनबी का भी होता है घर कहीं
दिन-भर कहीं गुज़ारिए या रात-भर कहीं

अग़्यार हूँ कहीं बुत-ए-शोरीदा-सर कहीं
सब कुछ हो आह में तो हो अपनी असर कहीं

यूँ उफ़ न बाग़-ए-दहर में बर्बादी हो कोई
बुलबुल का आशियाँ है कहीं बाल-ओ-पर कहीं

मैं आज अपनी आह का करता हूँ इम्तिहाँ
हों आसमाँ ज़मीन न ज़ेर-ओ-ज़बर कहीं

क़ैद-ए-क़फ़स में हसरत-ए-परवाज़ क्यूँ रहे
सय्याद जो उड़ा दे मिरे बाल-ओ-पर कहीं

रहती है उन की याद मिरे दिल में हर घड़ी
'औज' उन के दिल में काश हो मेरा भी घर कहीं