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आगे क्या तुम सा जहाँ में कोई महबूब न था | शाही शायरी
aage kya tum sa jahan mein koi mahbub na tha

ग़ज़ल

आगे क्या तुम सा जहाँ में कोई महबूब न था

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

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आगे क्या तुम सा जहाँ में कोई महबूब न था
क्या तुम्हीं ख़ूब बने और कोई ख़ूब न था

इन दिनों हम से जो वहशी की तरह भड़को हो
ये तो मिलने का तुम्हारे कभू उस्लूब न था

नामा-बर दिल की तसल्ली के लिए भेजूँ हूँ
वर्ना अहवाल मिरा क़ाबिल-ए-मक्तूब न था

ताक़त अब ताक़ हुई सब्र-ओ-शकेबाई की
कब तलक सब्र करे दिल मिरा अय्यूब न था

ग़लबा-ए-इश्क़ ने 'हातिम' को पछाड़ा आख़िर
ज़ोर में अपने वो इतना भी तो मग़्लूब न था