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आगे हरीम-ए-ग़म से कोई रास्ता न था | शाही शायरी
aage harim-e-gham se koi rasta na tha

ग़ज़ल

आगे हरीम-ए-ग़म से कोई रास्ता न था

अदा जाफ़री

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आगे हरीम-ए-ग़म से कोई रास्ता न था
अच्छा हुआ कि साथ किसी को लिया न था

दामान-ए-चाक चाक गुलों को बहाना था
दिल का जो रंग था वो नज़र से छुपा न था

रंग-ए-शफ़क़ की धूप खिली थी क़दम क़दम
मक़्तल में सुब्ह-ओ-शाम का मंज़र जुदा न था

क्या बोझ था कि जिस को उठाए हुए थे लोग
मुड़ कर किसी की सम्त कोई देखता न था

कुछ इतनी रौशनी में थे चेहरों के आइने
दिल उस को ढूँढता था जिसे जानता न था

कुछ लोग शर्मसार ख़ुदा जाने क्यूँ हुए
अपने सिवा हमें तो किसी से गिला न था

हर इक क़दम उठा था नए मौसमों के साथ
वो जो सनम तराश था बुत पूजता न था

जिस दर से दिल को ज़ौक़-ए-इबादत अता हुआ
उस आस्तान-ए-शौक़ पे सज्दा रवा न था

आँधी में बर्ग-ए-गुल की ज़बाँ से अदा हुआ
वो राज़ जो किसी से अभी तक कहा न था