आगे बढ़े न क़िस्सा-ए-इश्क़-ए-बुताँ से हम
सब कुछ कहा मगर न खुले राज़दाँ से हम
अब भागते हैं साया-ए-इश्क़-ए-बुताँ से हम
कुछ दिल से हैं डरे हुए कुछ आसमाँ से हम
हँसते हैं उस के गिर्या-ए-बे-इख़्तियार पर
भूले हैं बात कह के कोई राज़दाँ से हम
अब शौक़ से बिगड़ के ही बातें किया करो
कुछ पा गए हैं आप के तर्ज़-ए-बयाँ से हम
जन्नत में तो नहीं अगर ये ज़ख़्म-ए-तेग़-ए-इश्क़
बदलेंगे तुझ को ज़िंदगी-ए-जावेदाँ से हम
ग़ज़ल
आगे बढ़े न क़िस्सा-ए-इश्क़-ए-बुताँ से हम
अल्ताफ़ हुसैन हाली