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आगही और आगही दीजिए आगही कुछ और | शाही शायरी
aagahi aur aagahi dijiye aagahi kuchh aur

ग़ज़ल

आगही और आगही दीजिए आगही कुछ और

जमील मज़हरी

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आगही और आगही दीजिए आगही कुछ और
तीरगी घोर घोर है फेंकिए रौशनी कुछ और

इस का ख़ुदा सनम सनम उस का ख़ुदा हरम हरम
इश्क़ की गुमरही कुछ और अक़्ल की गुमरही कुछ और

उस की तही है जेब और इस का दिमाग़ है तही
उस की है मुफ़्लिसी कुछ और इस की है मुफ़्लिसी कुछ और

नाज़ तिरा चमन चमन राज़ तिरा दहन दहन
कहती है तीरगी कुछ और कहती है रौशनी कुछ और

कहती है दोपहर की धूप मेरा मिज़ाज गर्म है
लेकिन उजाली रात में कहती है चाँदनी कुछ और

बद है कोई न नेक है दोनों का मक़्सद एक है
गरचे है रहज़नी कुछ और गरचे है रहबरी कुछ और

गरचे ख़ुदा को आप ने माह-ए-लक़ा बना दिया
उस के फ़िराक़ में 'जमील' कीजिए शायरी कुछ और