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आग़ाज़-ए-गुल है शौक़ मगर तेज़ अभी से है | शाही शायरी
aaghaz-e-gul hai shauq magar tez abhi se hai

ग़ज़ल

आग़ाज़-ए-गुल है शौक़ मगर तेज़ अभी से है

ताबिश देहलवी

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आग़ाज़-ए-गुल है शौक़ मगर तेज़ अभी से है
यानी हवा-ए-बाग़ जुनूँ-ख़ेज़ अभी से है

जोश-ए-तलब ही मौजिब-ए-दरमाँदगी न हो
मंज़िल है दूर और क़दम तेज़ अभी से है

क्या इर्तिबात-ए-हुस्न-ओ-मोहब्बत की हो उमीद
वो जान-ए-शौक़ हम से कम-आमेज़ अभी से है

तरतीब-ए-कारवाँ में बहुत देर है मगर
आवाज़ा-ए-जरस है कि महमेज़ अभी से है

पहली ही ज़र्ब-ए-तेशा से कोह-ए-गिराँ है चूर
हसरत-मआल सतवत-ए-परवेज़ अभी से है

क्या जाने मय-कशों का हो क्या हश्र सुब्ह तक
साक़ी की हर निगाह दिल-आवेज़ अभी से है

ये इब्तिदा-ए-शौक़ ये पुर-शौक़ दिल मिरा!
इक जाम-ए-आतिशीं है कि लबरेज़ अभी से है

'ताबिश' भरी बहार में कोई बिछड़ गया
अब के चमन में बू-ए-ख़िज़ाँ तेज़ अभी से है