आग लग जाएगी इक दिन मिरी सरशारी को
मैं जो देता हूँ हवा रूह की चिंगारी को
वर्ना ये लोग कहाँ अपनी हदों में रहते
मैं ने माक़ूल किया हाशिया-बर्दारी को
ये परिंदे हैं कि दरवेश हैं ज़िंदानों के
कुछ समझते ही नहीं अम्र-ए-गिरफ़्तारी को
अब हमें ज़िंदगी करने में सुहूलत दी जाए
खींच लाए हैं यहाँ तक तो गिराँ-बारी को
एक तूफ़ान-ए-बला-ख़ेज़ ने मंज़र बदला
पेड़ तय्यार हुए रस्म-ए-निगूँ-सारी को
उस ने वो ज़हर हवाओं में मिलाया है कि अब
कोंपलें सर न उठाएँगी नुमूदारी को
कौन खींचेगा मिरे जिस्म की ज़ंजीर 'आज़र'
कौन आसान करेगा मिरी दुश्वारी को
ग़ज़ल
आग लग जाएगी इक दिन मिरी सरशारी को
दिलावर अली आज़र