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आग का रिश्ता निकल आए कोई पानी के साथ | शाही शायरी
aag ka rishta nikal aae koi pani ke sath

ग़ज़ल

आग का रिश्ता निकल आए कोई पानी के साथ

ज़फ़र इक़बाल

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आग का रिश्ता निकल आए कोई पानी के साथ
ज़िंदा रह सकता हूँ ऐसी ही ख़ुश-इम्कानी के साथ

तुम ही बतलाओ कि उस की क़द्र क्या होगी तुम्हें
जो मोहब्बत मुफ़्त में मिल जाए आसानी के साथ

बात है कुछ ज़िंदा रह जाना भी अपना आज तक
लहर थी आसूदगी की भी परेशानी के साथ

चल रहा है काम सारा ख़ूब मिल-जुल कर यहाँ
कुफ़्र भी चिमटा हुआ है जज़्ब-ए-ईमानी के साथ

फ़र्क़ पड़ता है कोई लोगों में रहने से ज़रूर
शहर के आदाब थे अपनी बयाबानी के साथ

ये वो दुनिया है कि जिस का कुछ ठिकाना ही नहीं
हम गुज़ारा कर रहे हैं दुश्मन-ए-जानी के साथ

राएगानी से ज़रा आगे निकल आए हैं हम
इस दफ़ा तो कुछ गिरानी भी है अर्ज़ानी के साथ

अपनी मर्ज़ी से भी हम ने काम कर डाले हैं कुछ
लफ़्ज़ को लड़वा दिया है बेशतर मअ'नी के साथ

फ़ासलों ही फ़ासलों में जान से हारा 'ज़फ़र'
इश्क़ था लाहोरिये को एक मुल्तानी के साथ