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आग है आग तिरी तेग़-ए-अदा का पानी | शाही शायरी
aag hai aag teri tegh-e-ada ka pani

ग़ज़ल

आग है आग तिरी तेग़-ए-अदा का पानी

जोश मलसियानी

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आग है आग तिरी तेग़-ए-अदा का पानी
ऐसे पानी को मैं हरगिज़ न कहूँगा पानी

न रहे आँख में भी दिल से निकल कर आँसू
जा-ब-जा उन को लिए फिरता है दाना पानी

हाल पूछो न मिरे गिर्या-ए-ग़म का मुझ से
उस के कहने से भी होता है कलेजा पानी

सोज़-ए-ग़म ही से मिरी आँख में आँसू आए
सोचता हूँ कि इसे आग कहूँ या पानी

तर्क-ए-मय-ख़ाना गवारा न करूँगा हरगिज़
रास है मेरी तबीअत को यहाँ का पानी

कर दिया सब को तिरे तीर-ए-नज़र ने सैराब
जिस के सीने पे लगा उस ने न माँगा पानी

ऐश दम भर का भी देखा नहीं जाता उस से
चर्ख़-ए-कम-बख़्त की आँखों में न उतरा पानी

तेरे ही जल्वे से है बाग़-ए-तमन्ना की बहार
यही तनवीर है आईना-दिल का पानी

ख़लिश-ए-ग़म से किए जाऊँ कहाँ तक नाले
मेरी क़िस्मत में तो हर रोज़ ये ईज़ा पानी

डूब जाते हैं उमीदों के सफ़ीने इस में
मैं न मानूँगा कि आँसू है ज़रा सा पानी

ज़ब्त-ए-गिर्या से बढ़ी और मुसीबत ऐ 'जोश'
दिल ये कहता है कि अब सर से है ऊँचा पानी