आफ़्ताब अब नहीं निकलने का
दौर आया शराब ढलने का
साँप कहते हैं ज़ुल्फ़ को शाइ'र
काम करते हैं मुँह कुचलने का
लाख हम चिकनी-चुपड़ी बात करें
उन का दिल अब नहीं फिसलने का
सिफ़त-ए-लब में शेर कहते हैं
अब इरादा है ला'ल उगलने का
कूटते हैं जो अपना हम सीना
है एवज़ छातियाँ मसलने का
क्यूँ न हर तर्ज़ में हो बात नई
पाँ है क़ाबू ज़बाँ बदलने का
एक बोसे की भी जमाए अब
क़स्द है उन को मिस्सी मलने का
नख़्ल-ए-मातम के साए में न ठहर
है मुसाफ़िर जो क़स्द चलने का
चश्म-पोशी से तिफ़्ल-ए-अश्क अपना
ढंग सीखा है अब मचलने का
हिफ़्ज़-ए-तीर-ए-निगह है ऐन ख़ता
नहीं पैग़ाम मौत टलने का
हम भी खेला करेंगे जान पर अब
शग़्ल अच्छा है दिल बहलने का
'मेहर' हिर्बा से दोस्ती ता-चंद
ग़म नहीं रंग के बदलने का
ग़ज़ल
आफ़्ताब अब नहीं निकलने का
हातिम अली मेहर