आएँगे वो तो आप में हरगिज़ न आएँगे
हम अपनी बे-ख़ुदी के तमाशे दिखाएँगे
हम नक़्द-ए-दिल जो सीने में अपने न पाएँगे
दुज़्द-ए-निगाह-ए-यार को चोरी लगाएँगे
ऐ बे-ख़ुदी जो आप में हम अब की आएँगे
फिर दिल-लगी से भी नहीं दिल को लगाएँगे
जब सू-ए-दश्त आप के दीवाने जाएँगे
फ़रहाद-ओ-क़ैस दूर तलक लेने आएँगे
परवाना वो कहेंगे तो हम उन को शो'ला-रू
हम भी जलाएँगे जो वो हम को जलाएँगे
क्यूँ दाबते हैं होंठ वो दाँतों में बार बार
क्या तेग़-ए-लब को आब-ए-गुहर में बुझाएँगे
दाम-ए-बला से देखिए क्यूँकर नजात हो
कब तक वो हम को ज़ुल्फ़ की गलियाँ झकाएँगे
वहशी-ए-चश्म-ए-यार जो निकलेगा शहर से
आँखों को ढेले आहू-ए-सहरा लगाएँगे
हूरों से चल के दाद-ए-जमाल उस की लेंगे हम
तस्वीर-ए-यार क़स्र-ए-जिनाँ में लगाएँगे
उट्ठेंगे फिर न बैठ के मानिंद-ए-नक़्श-ए-पा
हम अपने ज़ोफ़ की तुम्हें ताक़त दिखाएँगे
जागे हुए फ़िराक़ के सोते हैं ज़ेर-ए-ख़ाक
बद-ख़्वाब हों के हम जो फ़रिश्ते जगाएँगे
लेने में जिंस-ए-दिल के तो उजलत कमाल है
देने में नक़्द-ए-वस्ल के बरसों झकाएँगे
गर्म-ए-ख़िराम होंगे अगर सेहन-ए-बाग़ में
अँगारों पर वो कब्क-ए-चमन को लुटाएँगे
सीना-सिपर हैं आशिक़-ए-जाँ-बाज़ सैकड़ों
तेग़-ए-निगाह-ए-नाज़ वो कब आज़माएँगे
अब की तो हिज्र-ए-यार में हम गोर झाँक आए
जीते हैं तो किसी से न फिर दिल लगाएँगे
ऐ शहसवार-ए-नाज़ ये मिटता है बार बार
तेरे समंद-ए-हुस्न को हम ख़ुद बनाएँगे
हम क्यूँ इताअ'त इन की करें फ़ाएदा 'क़लक़'
क्या ये बुतान-ए-दहर ख़ुदा से मिलाएँगे
ग़ज़ल
आएँगे वो तो आप में हरगिज़ न आएँगे
अरशद अली ख़ान क़लक़