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आएगा कोई चल के ख़िज़ाँ से बहार में | शाही शायरी
aaega koi chal ke KHizan se bahaar mein

ग़ज़ल

आएगा कोई चल के ख़िज़ाँ से बहार में

निदा फ़ाज़ली

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आएगा कोई चल के ख़िज़ाँ से बहार में
सदियाँ गुज़र गई हैं इसी इंतिज़ार में

छिड़ते ही साज़-ए-बज़्म में कोई न था कहीं
वो कौन था जो बोल रहा था सितार में

ये और बात है कोई महके कोई चुभे
गुलशन तो जितना गुल में है उतना है ख़ार में

अपनी तरह से दुनिया बदलने के वास्ते
मेरा ही इक घर है मिरे इख़्तियार में

तिश्ना-लबी ने रेत को दरिया बना दिया
पानी कहाँ था वर्ना किसी रेग-ज़ार में

मसरूफ़ गोरकन को भी शायद पता नहीं
वो ख़ुद खड़ा हुआ है फ़ज़ा की क़तार में