आदत से उन की दिल को ख़ुशी भी है ग़म भी है
ये लुत्फ़ है सितम भी है उज़्र-ए-सितम भी है
उल्फ़त मुझे जताते हो दिल में भी दर्द है
रोने का मुँह बनाते हो आँखों में नम भी है
इस बुत का वस्ल था तो ख़ुदाई का ऐश था
ये जानते न थे कि ज़माने में ग़म भी है
तस्कीन मेरे दिल की और उस बेवफ़ा का क़ौल
दिल में फ़रेब भी है लबों पर क़सम भी है
अब आओ मिल के सो रहें तकरार हो चुकी
आँखों में नींद भी है बहुत रात कम भी है
नौमीदी भी है वस्ल से उस के उमीद भी
कुछ दर्द-ए-दिल बढ़ा भी है कुछ रंज कम भी है
ये बात गर न हो तो करे कौन हौसला
मिलना किसी का सहल भी है और अलम भी है
जाता है शक भी कर गया है वहम में वो शोख़
कूचे में ग़ैर ही के निशान-ए-क़दम भी है
बाहम तपाक भी हैं कभी रंजिशें भी हैं
लुत्फ़-ओ-करम भी है कभी जौर-ओ-सितम भी है
आ जाएँ वो मगर मुझे आता नहीं यक़ीं
क़ासिद का जो है क़ौल वो ख़त में रक़म भी है
बिगड़े हुए हैं आज ख़ुदा ख़ैर ही करे
कुछ बल भी है जबीं पे कुछ अबरू पे ख़म भी है
मर जाते हम तो कब के अजल देखती है तू
फ़ुर्सत किसी के ग़म से हमें कोई दम भी है
कहने को दो मकाँ हैं कीं तो है एक ही
बैतुस-सनम है जो वही बैतुल-हरम भी है
यूँ कह के भूल जाना ये ख़ू आप ही की है
मुझ को वो याद अहद भी है वो क़सम भी है
जब कुछ कहूँ तो कहते हैं ये फिर सुनूँगा मैं
फिर ऐसा कोई वक़्त भी है कोई दम भी है
कैसा विसाल ओ हिज्र अगर फ़हम है 'निज़ाम'
हर हाल में जुदा भी है वो और बहम भी है
ग़ज़ल
आदत से उन की दिल को ख़ुशी भी है ग़म भी है
निज़ाम रामपुरी