आबला-पाई है महरूमी है रुस्वाई है
उस बुत-ए-नाज़ का दिल फिर भी तमन्नाई है
मेरी आँखों से टपकते हैं लहू के आँसू
आज बे-लौस मोहब्बत की भी रुस्वाई है
लब पे फिर नाम वही हुस्न वही आँखों में
ऐ दिल-ए-ज़ार यही तेरी शकेबाई है
मज़हका-खेज़ है अंदाज़-ए-तकल्लुम उन का
मय-ए-उल्फ़त मगर आँखों में उतर आई है
'सानी'-ए-ज़ार तू अब और करेगी क्या क्या
आस्ताने पे मुसलसल तो जबीं-साई है

ग़ज़ल
आबला-पाई है महरूमी है रुस्वाई है
ज़रीना सानी