आब-ए-हयात जा के किसू ने पिया तो क्या
मानिंद-ए-ख़िज़्र जग में अकेला जिया तो क्या
शीरीं-लबाँ सीं संग-दिलों को असर नहीं
फ़रहाद काम कोह-कनी का किया तो क्या
जलना लगन में शम्अ-सिफ़त सख़्त काम है
परवाना जूँ शिताब अबस जी दिया तो क्या
नासूर की सिफ़त है न होगा कभू वो बंद
जर्राह ज़ख़्म-ए-इश्क़ कूँ आ कर सिया तो क्या
मोहताजगी सूँ मुझ कूँ नहीं एक दम फ़राग़
हक़ ने जहाँ में नाम कूँ 'हातिम' किया तो क्या
ग़ज़ल
आब-ए-हयात जा के किसू ने पिया तो क्या
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम