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आँखों से मैं ने चख लिया मौसम के ज़हर को | शाही शायरी
aaankhon se maine chakh liya mausam ke zahr ko

ग़ज़ल

आँखों से मैं ने चख लिया मौसम के ज़हर को

असलम आज़ाद

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आँखों से मैं ने चख लिया मौसम के ज़हर को
लेकिन वजूद सह न सका उस के क़हर को

फेंका था किस ने संग-ए-हवस रात ख़्वाब में
फिर ढूँढती है नींद उसी पिछले पहर को

मिट्टी के सब मकान ज़मीं-दोज़ हो गए
नक़्शे में अब तलाश करो अपने शहर को

दरिया-ए-शब का टूट गया है सुकूत आज
मुद्दत के ब'अद देख के किरनों की नहर को

साए के साथ वक़्त के दौड़ा वो देर तक
पलकों में फिर छुपा लिया लम्हों के क़हर को

पैमाना-ए-गुलाब को होंटों से चूम कर
मुट्ठी में क़ैद कर लिया ख़ुश्बू की लहर को