आँखों में वीरानी सी है पलकें भीगी बाल खुले
तू बे-वक़्त पशेमाँ क्यूँ है हम पर भी कुछ हाल खुले
तर्क-ए-वफ़ा पर सोचा था हाफ़िज़-साहिब से बात करूँ
अब डरता हूँ जाने कैसी उल्टी सीधी फ़ाल खुले
लाखों का हक़ मार चुके हो चैन कहाँ से पाओगे
पैदल आगे सरकाओ तो फ़र्ज़ीं की भी चाल खुले
बातों से तो नासेह को हम सीधा-सादा समझे थे
वो तो इक दिन मय-ख़ाने में हज़रत के अहवाल खुले
फ़रियादों ने और बढ़ा दी मुद्दत बद-उनवानी की
बाज़ू फैलाने से शायद बंधन टूटें जाल खुले
हस्ती की इस भूल-भुलय्याँ में जब थम कर सोचा तो
इक पेचीदा लम्हे में सद-बाब-ए-माह-ओ-साल खुले
आप 'मुज़फ़्फ़र'-हनफ़ी से मिल कर शायद मायूस न हों
दिल के साफ़ बसीरत गहरी ज़ेहन रसा आमाल खुले
ग़ज़ल
आँखों में वीरानी सी है पलकें भीगी बाल खुले
मुज़फ़्फ़र हनफ़ी