आँखों में मुरव्वत तिरी ऐ यार कहाँ है
पूछा न कभू मुझ को वो बीमार कहाँ है
नौ ख़त तो हज़ारों हैं गुलिस्तान-ए-जहाँ में
है साफ़ तो यूँ तुझ सा नुमूदार कहाँ है
आराम मुझे साया-ए-तूबा में नहीं है
बतलाओ कि वो साया-ए-दीवार कहाँ है
लाओ तो लहू आज पियूँ दुख़्तर-ए-रज़ का
ऐ मुहतसिबो देखो वो मुर्दार कहाँ है
फ़ुर्क़त में उस अबरू की गला काटूँगा अपना
म्याँ दीजो उसे दम मिरी तलवार कहाँ है
जिन से कि हो मरबूत वही तुम को है मैमून
इंसान की सोहबत तुम्हें दरकार कहाँ है
देखूँ जो तुझे ख़्वाब में मैं ऐ मह-ए-कनआँ
ऐसा तो मिरा ताला-ए-बेदार कहाँ है
सुनते ही उस आवाज़ की कुछ हो गई वहशत
देखो तो वो ज़ंजीर की झंकार कहाँ है
दिन छीने वो जब देखियो ग़ारत-गरी उस की
तब सोचियो ख़ुर्शीद की दस्तार कहाँ है
उस दिन के हूँ सदक़े कि तू खींचे हुए तलवार
ये पूछता आवे वो गुनहगार कहाँ है
हँसते तो हो तुम मुझ पे व-लेकिन कोई दिन को
रोओगे कि वो मेरा गिरफ़्तार कहाँ है
ऐ ग़म मुझे याँ अहल-ए-तअय्युश ने है घेरा
इस भीड़ में तू ऐ मिरे ग़म-ख़्वार कहाँ है
जब तक कि वो झाँके था इधर महर से हम तो
वाक़िफ़ ही न थे महर पर अनवार कहाँ है
उस मह के सरकते ही ये अंधेर है 'एहसाँ'
मालूम नहीं रख़्ना-ए-दीवार कहाँ है
ग़ज़ल
आँखों में मुरव्वत तिरी ऐ यार कहाँ है
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी