आ रही है शब-ए-ग़म मेरी तरफ़ मेरे लिए
साक़िया चश्म-ए-करम मेरी तरफ़ मेरे लिए
थकने लगता हूँ तो आवाज़ सी आती है कोई
और दो-चार क़दम मेरी तरफ़ मेरे लिए
लोग कहते हैं कि हो जाती है दुनिया रंगीं
इक नज़र मेरी क़सम मेरी तरफ़ मेरे लिए
पाएलें कू-ए-निगाराँ में खनक उठती हैं
जब वो रखते हैं क़दम मेरी तरफ़ मेरे लिए
झिलमिलाते हुए तारे ही सही सुब्ह-ए-फ़िराक़
हैं तो कुछ दीदा-ए-नम मेरी तरफ़ मेरे लिए
हाए वो बेकसी-ए-इश्क़ कि दुनिया थी ख़िलाफ़
दैर ही था न हरम मेरी तरफ़ मेरे लिए
होगी कुछ ऐसी ही मजबूरी-ए-हालात 'शमीम'
इल्तिफ़ात अब जो है कम मेरी तरफ़ मेरे लिए
ग़ज़ल
आ रही है शब-ए-ग़म मेरी तरफ़ मेरे लिए
शमीम करहानी