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आ निकल के मैदाँ में दो-रुख़ी के ख़ाने से | शाही शायरी
aa nikal ke maidan mein do-ruKHi ke KHane se

ग़ज़ल

आ निकल के मैदाँ में दो-रुख़ी के ख़ाने से

मजरूह सुल्तानपुरी

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आ निकल के मैदाँ में दो-रुख़ी के ख़ाने से
काम चल नहीं सकता अब किसी बहाने से

अहद-ए-इंक़लाब आया दौर-ए-आफ़्ताब आया
मुंतज़िर थीं ये आँखें जिस की इक ज़माने से

अब ज़मीन गाएगी हल के साज़ पर नग़्मे
वादियों में नाचेंगे हर तरफ़ तराने से

अहल-ए-दिल उगाएँगे ख़ाक से मह ओ अंजुम
अब गुहर सुबुक होगा जौ के एक दाने से

मनचले बुनेंगे अब रंग-ओ-बू के पैराहन
अब सँवर के निकलेगा हुस्न कार-ख़ाने से

आम होगा अब हमदम सब पे फ़ैज़ फ़ितरत का
भर सकेंगे अब दामन हम भी इस ख़ज़ाने से

मैं कि एक मेहनत-कश मैं कि तीरगी-दुश्मन
सुब्ह-ए-नौ इबारत है मेरे मुस्कुराने से

ख़ुद-कुशी ही रास आई देख बद-नसीबों को!
ख़ुद से भी गुरेज़ाँ हैं भाग कर ज़माने से

अब जुनूँ पे वो साअत आ पड़ी कि ऐ 'मजरूह'
आज ज़ख़्म-ए-सर बेहतर दिल पे चोट खाने से