आ के अब जंगल में ये उक़्दा खुला
भेड़िये पढ़ते नहीं हैं फ़ल्सफ़ा
रीछनी को शाएरी से क्या ग़रज़
तंग है तहज़ीब ही का क़ाफ़िया
खाल चिकनी हो तो धंदे हैं हज़ार
गीदड़ी ने कब कोई दोहा सुना
गोरख़र की धारियों को देख लो
सूट चौपाए भी लेते हैं सिला
लोमड़ी की दुम घनी कितनी भी हो
सतर-पोशी को नहीं कहते हया
शहर में उन के जो गुज़रा था 'सलीम'
लिख दिया है मैं ने सारा माजरा
ग़ज़ल
आ के अब जंगल में ये उक़्दा खुला
सलीम अहमद