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आ इधर आ हौसला गर कुछ है क़ातिल और भी | शाही शायरी
aa idhar aa hausla gar kuchh hai qatil aur bhi

ग़ज़ल

आ इधर आ हौसला गर कुछ है क़ातिल और भी

हरभजन सिंह सोढ़ी बिस्मिल

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आ इधर आ हौसला गर कुछ है क़ातिल और भी
देखता जा शौक़-ए-वस्ल-ए-रूह-ए-बिस्मिल और भी

देख कर मक़्तल में जोश-ए-ख़ून-ए-बिस्मिल और भी
चढ़ गया इक दम दम-ए-शमशीर-ए-क़ातिल और भी

जब से अपना का'बा-ए-दिल जल्वा-गाह-ए-यार है
बढ़ गई है आशिक़ों में अज़्मत-ए-दिल और भी

चाहने वाला तिरा इक मैं ही तो तन्हा नहीं
शुक्र है इस जुर्म-ए-उल्फ़त में हैं शामिल और भी

देखिए फिर किस तरह होता नहीं उन पर असर
काश सुन लेते नवा-ए-पर्दा-ए-दिल और भी

चश्म-ए-साक़ी हो इधर भी दौरा-ए-जाम-ए-निगाह
हैं दरून-ए-ख़ाना-ए-उल्फ़त में हैं शामिल और भी

मैं तो पहले ही से नज़्र-ए-आसिया-ए-चर्ख़ था
इश्क़ ने रख दी मिरे सीने पे इक सिल और भी

मैं तो तेरा हो लिया तू भी तो हो मेरा कभी
तेरी नज़र-ए-मेहर को तकते हैं 'बिस्मिल' और भी