आ ही जाएगी सहर मतला-ए-इम्काँ तो खुला
न सही बाब-ए-क़फ़स रौज़न-ए-ज़िंदाँ तो खुला
ले के आई तो सबा उस गुल-ए-चीनी का पयाम
वो सही ज़ख़्म की सूरत लब-ए-ख़ंदाँ तो खुला
सैल-ए-रंग आ ही रहेगा मगर ऐ किश्त-ए-चमन
ज़र्ब-ए-मौसम तो पड़ी बंद-ए-बहाराँ तो खुला
दिल तलक पहुँचे न पहुँचे मगर ऐ चश्म-ए-हयात
बाद मुद्दत के तिरा पंजा-ए-मिज़्गाँ तो खुला
दर्द का दर्द से रिश्ता है चलो ऐ 'मजरूह'
आज यारों से ये इक उक़्दा-ए-आसाँ तो खुला
ग़ज़ल
आ ही जाएगी सहर मतला-ए-इम्काँ तो खुला
मजरूह सुल्तानपुरी