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आ गया ईसार मेरे हल्क़ा-ए-अहबाब में | शाही शायरी
aa gaya isar mere halqa-e-ahbab mein

ग़ज़ल

आ गया ईसार मेरे हल्क़ा-ए-अहबाब में

एजाज़ अासिफ़

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आ गया ईसार मेरे हल्क़ा-ए-अहबाब में
फिर किसी शोले ने पाई है नुमू बर्फ़ाब में

कह रही है साहिलों से डूबने वाले की लाश
मैं ने पाया है सुकूँ इक मुज़्तरिब गिर्दाब में

काँप उट्ठा हूँ वरूद-ए-बारिश-ए-मौऊदा पर
ग़र्क़ होने को है सारा शहर सैल-ए-आब में

मेरे हाथों में अगर तक़दीर-ए-सुब्ह-ओ-शाम हो
तितलियाँ ता'बीर की रख दूँ किताब-ए-ख़्वाब में

ख़ाक के पुतले ने आख़िर कर दिया इफ़्शा उसे
दफ़न था जो राज़ अब तक सीना-ए-महताब में

सामने की चीज़ में 'आसिफ़' नहीं कोई कशिश
तक न यूँ हैरत से अपने अक्स को तालाब में