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आ गई दिल की लगी बढ़ के रग-ए-जाँ के क़रीब | शाही शायरी
aa gai dil ki lagi baDh ke rag-e-jaan ke qarib

ग़ज़ल

आ गई दिल की लगी बढ़ के रग-ए-जाँ के क़रीब

नातिक़ गुलावठी

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आ गई दिल की लगी बढ़ के रग-ए-जाँ के क़रीब
क़ाफ़िला शौक़ का है मंज़िल-ए-अरमाँ के क़रीब

आदमिय्यत नहीं फटकी तिरे दरबाँ के क़रीब
वर्ना आता तो है इंसान ही इंसाँ के क़रीब

वज़्-ए-पाबंदी ओ आज़ादी-ए-हस्ती तौबा
यानी ज़िंदाँ से कहीं दूर न ज़िंदाँ के क़रीब

जुरअत-ए-अफ़ज़ा-ए-सवाल ऐ ज़हे अंदाज़-ए-जवाब
आती जाती है अब उस बुत की नहीं हाँ के क़रीब

है तो कुछ हश्र की आमद का हमें भी खटका
इस के आसार तो हैं गंज-ए-शहीदाँ के क़रीब

मुझ को मालूम हुआ अब कि ज़माना तुम हो
मिल गई राह-ए-सुकूँ गर्दिश-ए-दौराँ के क़रीब

ग़म-ओ-अंदोह का लश्कर भी चला आता है
एक घोड़-दौड़ सी है उम्र-ए-गुरेज़ाँ के क़रीब

गिर्या-ए-ग़म को है पलकों का इशारा दरकार
एक उमडा हुआ तूफ़ान है मिज़्गाँ के क़रीब

जान किस किस को सँभाले कि सब अज्ज़ा-ए-वजूद
हैं परेशानी-ए-ख़ातिर से परेशाँ के क़रीब

पाँव दामन से उलझते हैं ख़ुदा ख़ैर करे
हाथ रहते हैं कई दिन से गरेबाँ के क़रीब

भूल जा ख़ुद को कि है मअरिफ़त-ए-नफ़्स यही
कोई रहता ही नहीं सरहद-ए-इरफ़ाँ के क़रीब

कसरत-ए-ख़ार रह-ए-शौक़ इलाही तौबा
कहीं पहुँचे तो नहीं रौज़ा-ए-रिज़वाँ के क़रीब

मर्हबा बंदगी-आमोज़ तसव्वुर तेरा
जिस के एहसान से पहुँचा हूँ मैं एहसाँ के क़रीब

तूर की छेड़ हुई होश-रुबा वर्ना कलीम
कोई पहुँचा भी तो था शोला-ए-उर्यां के क़रीब

क़द्र-ए-अफ़्ज़ाई-ए-माहौल-ए-वतन क्या कहना
दाम यूसुफ़ के बहुत आ गए कनआँ के क़रीब

अब तो 'नातिक़' का बस इतना ही पता चलता है
है कहीं घर से बहुत दूर बयाबाँ के क़रीब