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आ फ़स्ल-ए-गुल है ग़र्क़-ए-तमन्ना तिरे लिए | शाही शायरी
aa fasl-e-gul hai gharq-e-tamanna tere liye

ग़ज़ल

आ फ़स्ल-ए-गुल है ग़र्क़-ए-तमन्ना तिरे लिए

जोश मलीहाबादी

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आ फ़स्ल-ए-गुल है ग़र्क़-ए-तमन्ना तिरे लिए
डूबा हुआ है रंग में सहरा तिरे लिए

साहिल पे सर्व-ए-नाज़ को दे ज़हमत-ए-ख़िराम
बल खा रहा है ख़ाक पे दरिया तिरे लिए

ईफ़ा-ए-अहद कर कि है मुद्दत से बे-क़रार
रूह-ए-वफ़ा-ए-वादा-ए-फ़र्दा तिरे लिए

शानों पे अब तो काकुल-ए-शब-रंग खोल दे
बिखरी हुई है ज़ुल्फ़-ए-तमन्ना तिरे लिए

उठ चश्म-ए-जावेदाना-ए-साग़र-फ़रोश उठ
मचली हुई है लर्ज़िश-ए-सहबा तिरे लिए

ऐ आफ़्ताब-ए-जल्वा-ए-जानाँ बुलंद हो
खोया हुआ है मतला-ए-दुनिया तिरे लिए

मौज-ए-शमीम-ए-सुम्बुल-ओ-रैहाँ के दरमियाँ
वा है मुसाहिबत का दरीचा तिरे लिए

आ और दाद दे कि ब-ईं चश्म-ए-हक़-निगर
खाए हुए हूँ ज़ीस्त का धोका तिरे लिए

सब्ज़े का फ़र्श अब्र का ख़ेमा गुलों का इत्र
गुलशन में एहतिमाम है क्या क्या तिरे लिए

तुग़्यान-ए-गुल शबाब पे बुलबुल ख़रोश में
इक हश्र सा है बाग़ में बरपा तिरे लिए

'जोश' और नंग-ए-ख़िदमत-ए-सुल्तान ओ पास-ए-होश
ये भी किए हुए है गवारा तिरे लिए