दिल-ए-मुज़्तर से नालाँ हैं उधर वो भी इधर हम भी
मोहब्बत में परेशाँ हैं उधर वो भी इधर हम भी
किसे फ़ुर्सत है माज़ी की पुरानी दास्ताँ छेड़े
ग़म-ए-हाज़िर में ग़लताँ हैं उधर वो भी इधर हम भी
ब-ज़ाहिर कोई हैरानी नहीं तर्क-ए-मोहब्बत पर
मगर दिल में पशेमाँ हैं उधर वो भी इधर हम भी
ख़िज़ाँ के जौर-ए-पैहम की शिकायत है तो दोनों को
तलबगार-ए-बहाराँ हैं उधर वो भी इधर हम भी
उन्हें जाने की जल्दी है हमें ज़िद है कि रुक जाएँ
ग़रज़ दोनों परेशाँ हैं उधर वो भी इधर हम भी
ग़ज़ल
दिल-ए-मुज़्तर से नालाँ हैं उधर वो भी इधर हम भी
अर्श सहबाई