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दिल-ए-मुज़्तर से नालाँ हैं उधर वो भी इधर हम भी | शाही शायरी
dil-e-muztar se nalan hain udhar wo bhi idhar hum bhi

ग़ज़ल

दिल-ए-मुज़्तर से नालाँ हैं उधर वो भी इधर हम भी

अर्श सहबाई

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दिल-ए-मुज़्तर से नालाँ हैं उधर वो भी इधर हम भी
मोहब्बत में परेशाँ हैं उधर वो भी इधर हम भी

किसे फ़ुर्सत है माज़ी की पुरानी दास्ताँ छेड़े
ग़म-ए-हाज़िर में ग़लताँ हैं उधर वो भी इधर हम भी

ब-ज़ाहिर कोई हैरानी नहीं तर्क-ए-मोहब्बत पर
मगर दिल में पशेमाँ हैं उधर वो भी इधर हम भी

ख़िज़ाँ के जौर-ए-पैहम की शिकायत है तो दोनों को
तलबगार-ए-बहाराँ हैं उधर वो भी इधर हम भी

उन्हें जाने की जल्दी है हमें ज़िद है कि रुक जाएँ
ग़रज़ दोनों परेशाँ हैं उधर वो भी इधर हम भी