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ख़्वार-ओ-रुसवा थे यहाँ अहल-ए-सुख़न पहले भी | शाही शायरी
KHwar-o-ruswa the yahan ahl-e-suKHan pahle bhi

ग़ज़ल

ख़्वार-ओ-रुसवा थे यहाँ अहल-ए-सुख़न पहले भी

शाज़ तमकनत

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ख़्वार-ओ-रुसवा थे यहाँ अहल-ए-सुख़न पहले भी
ऐसा ही कुछ था ज़माने का चलन पहले भी

मुद्दतों बा'द तुझे देख के याद आता है
मैं ने सीखा था लहू रोने का फ़न पहले भी

दिल-नवाज़ आज भी है नीम-निगाही तेरी
दिल-शिकन था तिरा बे-साख़्ता-पन पहले भी

आज इस तरह मिला तू कि लहू जाग उठा
यूँ तो आती रही ख़ुशबू-ए-बदन पहले भी

'शाज़' वो जानेगा उन आँखों में क्या क्या कुछ है
जिस ने देखी हो उन आँखों की थकन पहले भी