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वो अजनबी था ग़ैर था किस ने कहा न था | शाही शायरी
wo ajnabi tha ghair tha kis ne kaha na tha

ग़ज़ल

वो अजनबी था ग़ैर था किस ने कहा न था

किश्वर नाहीद

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वो अजनबी था ग़ैर था किस ने कहा न था
दिल को मगर यक़ीन किसी पर हुआ न था

हम को तो एहतियात-ए-ग़म-ए-दिल अज़ीज़ थी
कुछ इस लिए भी कम-निगही का गिला न था

दस्त-ए-ख़याल-ए-यार से फूटे शफ़क़ के रंग
नक़्श-ए-क़दम भी रंग-ए-हिना के सिवा न था

ढूँडा उसे बहुत कि बुलाया था जिस ने पास
जल्वा मगर कहीं भी सदा के सिवा न था

कुछ इस क़दर थी गर्मी-ए-बाज़ार-ए-आरज़ू
दिल जो ख़रीदता था उसे देखता न था

कैसे करेंगे ज़िक्र-ए-हबीब-ए-जफ़ा-पसंद
जब नाम दोस्तों में भी लेना रवा न था

कुछ यूँ ही ज़र्द ज़र्द सी 'नाहीद' आज थी
कुछ ओढ़नी का रंग भी खिलता हुआ न था