दिल को रंजीदा करो आँख को पुर-नम कर लो
मरने वाले का कोई देर तो मातम कर लो
वो अभी लौटे हैं हारे हुए लश्कर की तरह
साज़-हा-ए-तरब-अंगेज़ ज़रा कम कर लो
सनसनाते हैं हर इक सम्त हवाओं के भँवर
अपने बिखरे हुए अतराफ़ को बाहम कर लो
इतने तन्हा हो तो इस साअ'त-ए-बे-मसरफ़ में
अपनी आँखों में कोई चेहरा मुजस्सम कर लो
ये ज़मीं टूटे हुए चाँद की खेती है 'ज़ुबैर'
मेरी रातों में बपा कोई भी आलम कर लो
ग़ज़ल
दिल को रंजीदा करो आँख को पुर-नम कर लो
ज़ुबैर रिज़वी