शोहरत की फ़ज़ाओं में इतना न उड़ो 'साग़र'
परवाज़ न खो जाए इन ऊँची उड़ानों में
साग़र आज़मी
अपने अफ़्साने की शोहरत उसे मंज़ूर न थी
उस ने किरदार बदल कर मिरा क़िस्सा लिख्खा
शीन काफ़ निज़ाम
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हम तालिब-ए-शोहरत हैं हमें नंग से क्या काम
बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा
मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता
किसी को बे-सबब शोहरत नहीं मिलती है ऐ 'वाहिद'
उन्हीं के नाम हैं दुनिया में जिन के काम अच्छे हैं
वाहिद प्रेमी