कोई समझेगा क्या राज़-ए-गुलशन
जब तक उलझे न काँटों से दामन
फ़ना निज़ामी कानपुरी
फूलों को गुलिस्ताँ में कब रास बहार आई
काँटों को मिला जब से एजाज़-ए-मसीहाई
फ़िगार उन्नावी
काँटों पे चले हैं तो कहीं फूल खिले हैं
फूलों से मिले हैं तो बड़ी चोट लगी है
जावेद वशिष्ट
बहुत हसीन सही सोहबतें गुलों की मगर
वो ज़िंदगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे
जिगर मुरादाबादी
गुलशन-परस्त हूँ मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़
काँटों से भी निबाह किए जा रहा हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
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फूल कर ले निबाह काँटों से
आदमी ही न आदमी से मिले
ख़ुमार बाराबंकवी
ज़ख़्म बिगड़े तो बदन काट के फेंक
वर्ना काँटा भी मोहब्बत से निकाल
महबूब ख़िज़ां
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