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2 लाइन शायरी शायरी | शाही शायरी

2 लाइन शायरी

22761 शेर

रहमान के फ़रिश्ते गो हैं बहुत मुक़द्दस
शैतान ही की जानिब लेकिन मेजोरिटी है

अकबर इलाहाबादी




रह-ओ-रस्म-ए-मोहब्बत इन हसीनों से मैं क्या रक्खूँ
जहाँ तक देखता हूँ नफ़अ उन का है ज़रर अपना

अकबर इलाहाबादी




रक़ीबों ने रपट लिखवाई है जा जा के थाने में
कि 'अकबर' नाम लेता है ख़ुदा का इस ज़माने में

अकबर इलाहाबादी




सब हो चुके हैं उस बुत-ए-काफ़िर-अदा के साथ
रह जाएँगे रसूल ही बस अब ख़ुदा के साथ

अकबर इलाहाबादी




समझ में साफ़ आ जाए फ़साहत इस को कहते हैं
असर हो सुनने वाले पर बलाग़त इस को कहते हैं

अकबर इलाहाबादी




सौ जान से हो जाऊँगा राज़ी मैं सज़ा पर
पहले वो मुझे अपना गुनहगार तो कर ले

अकबर इलाहाबादी




शैख़ अपनी रग को क्या करें रेशे को क्या करें
मज़हब के झगड़े छोड़ें तो पेशे को क्या करें

अकबर इलाहाबादी