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वली उज़लत शायरी | शाही शायरी

वली उज़लत शेर

27 शेर

जावे थी जासूसी-ए-मजनूँ को ता राहत न ले
वर्ना कब लैला को था सहरा में जाने का दिमाग़

वली उज़लत




जा कर फ़ना के उस तरफ़ आसूदा मैं हुआ
मैं आलम-ए-अदम में भी देखा मज़ा न था

वली उज़लत




इश्क़ गोरे हुस्न का आशिक़ के दिल को दे जला
साँवलों के आशिक़ों का दिल है काला कोएला

वली उज़लत




इस ज़माने में बुज़ुर्गी सिफ़्लगी का नाम है
जिस की टिकिया में फिरे उँगली सो हो जावे तिरा

वली उज़लत




हिन्दू ओ मुस्लिमीन हैं हिर्स-ओ-हवा-परसत
हो आश्ना-परस्त वही है ख़ुदा-परस्त

वली उज़लत




हम उस की ज़ुल्फ़ की ज़ंजीर में हुए हैं असीर
सजन के सर की बला आ पड़ी हमारे गले

वली उज़लत




ग़नीमत बूझ लेवें मेरे दर्द-आलूद नालों को
ये दीवाना बहुत याद आएगा शहरी ग़ज़ालों को

वली उज़लत




गए सब मर्द रह गए रहज़न अब उल्फ़त से कामिल हूँ
ऐ दिल वालो मैं इन दिल वालियों से सख़्त बे-दिल हूँ

वली उज़लत




बाद-ए-बहार में सब आतिश जुनून की है
हर साल आवती है गर्मी में फ़स्ल-ए-होली

वली उज़लत