लफ़्ज़ की क़ैद से रिहा हो जा
आ मिरी आँख से अदा हो जा
तौक़ीर तक़ी
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मैं तिरे हिज्र से निकलूँगा तो मर जाऊँगा
हाए वो लोग जो मेहवर से निकल जाते हैं
तौक़ीर तक़ी
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फेंक दे ख़ुश्क फूल यादों के
ज़िद न कर तू भी बे-वफ़ा हो जा
तौक़ीर तक़ी
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रूठ कर आँख के अंदर से निकल जाते हैं
अश्क बच्चों की तरह घर से निकल जाते हैं
तौक़ीर तक़ी
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सब्ज़ पेड़ों को पता तक नहीं चलता शायद
ज़र्द पत्ते भरे मंज़र से निकल जाते हैं
तौक़ीर तक़ी
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यहीं आना है भटकती हुई आवाज़ों को
यानी कुछ बात तो है कोह-ए-निदा में ऐसी
तौक़ीर तक़ी
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ज़र का बंदा हो कि महरूमी का मारा हुआ शख़्स
जिस को देखो वही औक़ात से निकला हुआ है
तौक़ीर तक़ी
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