मैं किस के हाथ पे अपना लहू तलाश करूँ
तमाम शहर ने पहने हुए हैं दस्ताने
मुस्तफ़ा ज़ैदी
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मिरी रूह की हक़ीक़त मिरे आँसुओं से पूछो
मिरा मज्लिसी तबस्सुम मिरा तर्जुमाँ नहीं है
मुस्तफ़ा ज़ैदी
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नावक-ए-ज़ुल्म उठा दशना-ए-अंदोह सँभाल
लुत्फ़ के ख़ंजर-ए-बे-नाम से मत मार मुझे
मुस्तफ़ा ज़ैदी
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रूह के इस वीराने में तेरी याद ही सब कुछ थी
आज तो वो भी यूँ गुज़री जैसे ग़रीबों का त्यौहार
मुस्तफ़ा ज़ैदी
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तितलियाँ उड़ती हैं और उन को पकड़ने वाले
सई-ए-नाकाम में अपनों से बिछड़ जाते हैं
मुस्तफ़ा ज़ैदी
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उतरा था जिस पे बाब-ए-हया का वरक़ वरक़
बिस्तर के एक एक शिकन की शरीक थी
मुस्तफ़ा ज़ैदी
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