बस्तियाँ कैसे न मम्नून हों दीवानों की 
वुसअ'तें इन में वही लाते हैं वीरानों की
मुख़्तार सिद्दीक़ी
इबरत-आबाद भी दिल होते हैं इंसानों के 
दाद मिलती भी नहीं ख़ूँ-शुदा अरमानों की
मुख़्तार सिद्दीक़ी
जिन ख़यालों के उलट फेर में उलझीं साँसें 
उन में कुछ और भी साँसों का इज़ाफ़ा कर लें
मुख़्तार सिद्दीक़ी
कभी फ़ासलों की मसाफ़तों पे उबूर हो तो ये कह सुकूँ 
मिरा जुर्म हसरत-ए-क़ुर्ब है तो यही कमी यहाँ सब में है
मुख़्तार सिद्दीक़ी
क्या क्या पुकारें सिसकती देखीं लफ़्ज़ों के ज़िंदानों में 
चुप ही की तल्क़ीन करे है ग़ैरत-मंद ज़मीर हमें
मुख़्तार सिद्दीक़ी
मैं तो हर धूप में सायों का रहा हूँ जूया 
मुझ से लिखवाई सराबों की कहानी तुम ने
मुख़्तार सिद्दीक़ी
मेरी आँखों ही में थे अन-कहे पहलू उस के 
वो जो इक बात सुनी मेरी ज़बानी तुम ने
मुख़्तार सिद्दीक़ी
नूर-ए-सहर कहाँ है अगर शाम-ए-ग़म गई 
कब इल्तिफ़ात था कि जो ख़ू-ए-सितम गई
मुख़्तार सिद्दीक़ी
फेरा बहार का तो बरस दो बरस में है 
ये चाल है ख़िज़ाँ की जो रुक रुक के थम गई
मुख़्तार सिद्दीक़ी

