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मिर्ज़ा हादी रुस्वा शायरी | शाही शायरी

मिर्ज़ा हादी रुस्वा शेर

17 शेर

बा'द तौबा के भी है दिल में ये हसरत बाक़ी
दे के क़स्में कोई इक जाम पिला दे हम को

मिर्ज़ा हादी रुस्वा




बुत-परस्ती में न होगा कोई मुझ सा बदनाम
झेंपता हूँ जो कहीं ज़िक्र-ए-ख़ुदा होता है

मिर्ज़ा हादी रुस्वा




देखा है मुझे अपनी ख़ुशामद में जो मसरूफ़
इस बुत को ये धोका है कि इस्लाम यही है

मिर्ज़ा हादी रुस्वा




दिल लगाने को न समझो दिल-लगी
दुश्मनों की जान पर बन जाएगी

मिर्ज़ा हादी रुस्वा




दिल्ली छुटी थी पहले अब लखनऊ भी छोड़ें
दो शहर थे ये अपने दोनों तबाह निकले

मिर्ज़ा हादी रुस्वा




दुबकी हुई थी गुरबा-सिफ़त ख़्वाहिश-ए-गुनाह
चुमकारने से फूल गई शेर हो गई

मिर्ज़ा हादी रुस्वा




हँस के कहता है मुसव्विर से वो ग़ारत-गर-ए-होश
जैसी सूरत है मिरी वैसी ही तस्वीर भी हो

मिर्ज़ा हादी रुस्वा




है यक़ीं वो न आएँगे फिर भी
कब निगह सू-ए-दर नहीं होती

मिर्ज़ा हादी रुस्वा




हम को भी क्या क्या मज़े की दास्तानें याद थीं
लेकिन अब तमहीद-ए-ज़िक्र-ए-दर्द-ओ-मातम हो गईं

मिर्ज़ा हादी रुस्वा