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मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम शायरी | शाही शायरी

मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम शेर

34 शेर

जब मैं कहता हूँ कि नादिम हो कुछ अपने ज़ुल्म पर
सर झुका कर कहते हैं शर्म-ओ-हया से क्या कहें

मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम




अभी आए अभी कहने लगे लो जाते हैं
आग लेने को जो आए थे तो आना क्या था

मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम




हम लब-गोर हो गए ज़ालिम
तू लब-ए-बाम क्यूँ नहीं आता

मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम




हम भी अब अपनी मोहब्बत से उठाते हैं हाथ
चाहने वाला अगर हम को दिखा और कोई

मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम




हम अपनी रूह को क़ासिद बना के भेजेंगे
तिरा गुज़र जो वहाँ नामा-बर नहीं न सही

मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम




हाथ टूटें जो छुआ भी हो हाथ
दुख गई उन की कलाई क्यूँ-कर

मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम




दुखाता है मिरा दिल बे अलिफ़ रे
हुआ हूँ रंज से मैं ज़े अलिफ़ रे

मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम




बेवफ़ा तुम हुए की तर्क-ए-मोहब्बत मैं ने
इश्क़-बाज़ी मिरा शेवा था मिरी ज़ात न थी

मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम




बता तू दिल के बचाने की कोई राह भी है
तिरी निगाह की नावक-फ़गन पनाह भी है

मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम